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त्वं तू न॑ इन्द्र॒ तं र॒यिं दा॒ ओजि॑ष्ठया॒ दक्षि॑णयेव रा॒तिम्। स्तुत॑श्च॒ यास्ते॑ च॒कन॑न्त वा॒योः स्तनं॒ न मध्व॑: पीपयन्त॒ वाजै॑: ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tvaṁ tū na indra taṁ rayiṁ dā ojiṣṭhayā dakṣiṇayeva rātim | stutaś ca yās te cakananta vāyoḥ stanaṁ na madhvaḥ pīpayanta vājaiḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त्वम्। तु। नः॒। इ॒न्द्र॒। तम्। र॒यिम्। दाः॒। ओजि॑ष्ठया। दक्षि॑णयाऽइव। रा॒तिम्। स्तुतः॑। च॒। याः। ते॒। च॒कन॑न्त। वा॒योः। स्तन॑म्। न। मध्वः॑। पी॒प॒य॒न्त॒। वाजैः॑ ॥ १.१६९.४

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:169» मन्त्र:4 | अष्टक:2» अध्याय:4» वर्ग:8» मन्त्र:4 | मण्डल:1» अनुवाक:23» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) बहुत पदार्थों के देनेवाले ! (त्वम्) आप (तु) तो (नः) हमारे लिये (ओजिष्ठया) अतीव बलवती (दक्षिणयेव) दक्षिणा के साथ दान जैसे दिया जाय वैसे (रातिम्) दान को तथा (तम्) उस (रयिम्) दुग्धादि धन को (दाः) दीजिये कि जिससे (ते) आपकी और (वायोः) पवन की (च) भी (याः) जो (स्तुतः) स्तुति करनेवाली हैं वे (मध्वः) मधुर उत्तम (स्तनम्) दूध के भरे हुए स्तन के (न) समान (चकनन्त) चाहती और (वाजैः) अन्नादिकों के साथ (पीपयन्त) बछरों को पिलाती हैं ॥ ४ ॥
भावार्थभाषाः - जैसे बहुत पदार्थों को देनेवाला यजमान ऋतु-ऋतु में यज्ञादि करानेवाले पुरोहित के लिये बहुत धन देकर उसको सुशोभित करता है वा जैसे पुत्र माता का दूध पीके पुष्ट हो जाते हैं, वैसे सभाध्यक्ष के परितोष से भृत्यजन पूर्ण धनी और उनके दिये भोजनादि पदार्थों से बलवान् होते हैं ॥ ४ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

हे इन्द्र त्वं तु न ओजिष्ठया दक्षिणयेव रातिं तं रयिं दाः। यं ते वायोश्च यास्तुतस्ता मध्वः स्तनं न चकनन्त वाजैः पीपयन्त च ॥ ४ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (त्वम्) (तु) एव (नः) अस्मभ्यम् (इन्द्र) बहुप्रद (तम्) (रयिम्) दुग्धादि धनम् (दाः) देहि (ओजिष्ठया) अतिशयेन पराक्रमयुक्त्या (दक्षिणयेव) यथा दक्षिणया तथा (रातिम्) दानम् (स्तुतः) स्तुतिं कुर्वत्यः। क्विबन्तः शब्दोऽयम्। (च) (याः) (ते) त्वाम्। कर्मणि षष्ठी। (चकनन्त) कामयन्ते (वायोः) पवनम्। अत्र कर्मणि षष्ठी। (स्तनम्) दुग्धस्याधारम् (न) इव (मध्वः) मधुरस्य (पीपयन्त) पाययन्ति (वाजैः) अन्नादिभिः सह ॥ ४ ॥
भावार्थभाषाः - यथा बहुप्रदो यजमान ऋत्विजे पुष्कलं धनं दत्वैतमलङ्करोति यथा वा पुत्रा मातुर्दुग्धं पीत्वा पुष्टा जायन्ते तथा सभाध्यक्षपरितोषेण भृत्या अलंधना भोजनादिदानेन च बलिष्ठा भवन्ति ॥ ४ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जसा पुष्कळ पदार्थ देणारा यजमान निरनिराळ्या ऋतूंमध्ये यज्ञ इत्यादी करविणाऱ्या पुरोहितासाठी पुष्कळ धन देऊन त्याला सुशोभित करतो, जसे मातेचे दूध पिऊन पुत्र पुष्ट होतात, तसे सभाध्यक्षाने संतोषपूर्वक दिल्यास सेवक पूर्ण धनवान होतात व दिलेल्या भोजनाने बलवान होतात. ॥ ४ ॥